Exclusive Interview President Ram Nath Kovind Every Disaster Teaches Us Many Things – अमर उजाला एक्सक्लूसिव: राष्ट्रपति ने दी आपदा से सीखने की सलाह, कोरोना से जंग में ‘इंडिया मॉडल’ को बताया कारगर




साक्षात्कारः राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद
– फोटो : amar ujala

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चित्रकूट से लेकर गांधी तक, स्पैनिश फ्लू से लेकर वैश्विक आपदा कोरोना तक, प्रेमचंद और निराला से लेकर डार्विन के कुछ अनजाने पक्ष तक और आज के केरल की अब भी कायम स्वास्थ्य पोषक परंपराओं से लेकर एकांगी भौतिक विकास के बरक्स प्रकृति पोषक समावेशी विकास तक-राष्ट्रपति रामनाथ कोविन्द ने अपने कार्यकाल के सबसे पहले और विस्तृत इंटरव्यू में कोरोना से उपजे संकट और उसके निहितार्थ पर खुलकर बात की। इस वैश्विक महामारी के सबक याद दिलाते हुए भारतीय मनीषा और भारतीय आत्मा के मूल तत्वों की उपयोगिता को सहजता से सामने रखा। अमर उजाला के लिए संजय देव से हुई खुली बातचीत के प्रमुख अंश…

बहुत बड़ी चुनौती है यह आपदा… 

कोरोना ने अधिकांश दुनिया को भीतर-बाहर से बदल दिया है। इस बदलाव को आप किस तरह देखते हैं?

वैश्विक महामारी ने विश्व समुदाय के सभी देशों, संस्थानों व व्यक्तियों के जीवन और सोच को प्रभावित किया है। मैंने मानव जीवन को विश्वव्यापी स्तर पर प्रभावित करने वाली ऐसी किसी चुनौती को नहीं देखा है। मेरा मानना है कि हर प्राकृतिक आपदा कोई न कोई सीख देती है। आपदाओं के विश्लेषण से मिले ज्ञान का सदुपयोग मानवता के हित में होना चाहिए। लेकिन इससे पहले तक आपदाओं से मिली सीख को भुलाकर मानव समाज अपनी तात्कालिक प्राथमिकताओं की दिशा में आगे बढ़ता रहा है।

स्पैनिश फ्लू से नहीं सीखा सबक…

यह सबक भुला देने वाली बात क्यों कह रहे हैं?
लगभग सौ वर्ष पहले भी एक वैश्विक महामारी से, जिसे स्पैनिश-फ्लू का नाम दिया गया, दुनिया की बहुत बड़ी आबादी का सफाया हो गया था। लेकिन मानव समाज ने उसकी अनदेखी करते हुए एकांगी विकास की राह पकड़ी। इस बार खास बात हुई है कि उस एकांगी विकास के मानकों पर सबसे आगे रहने वाले देश भी बुरी तरह आहत हुए हैं। अब पूरे विश्व समुदाय को मानवता के अस्तित्व पर आने वाले संभावित संकटों से बचाव के रास्ते तलाशने होंगे। महात्मा गांधी ने तेजी से हो रहे एकांगी भौतिक विकास के प्रशंसकों को आगाह करते हुए कहा था कि ऐसे तेज विकास की दिशा भी ठीक होनी चाहिए। आज के इस वैश्विक संकट ने आधुनिक विकास की दिशा और गति, दोनों पर प्रश्न-चिह्न लगाया है। 1918 के इस फ्लू में आज के उत्तर प्रदेश के क्षेत्र में लगभग 20 लाख लोग मारे गए। मुंशी प्रेमचंद व सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ इससे निजी तौर पर अलग-अलग तरह से प्रभावित हुए। उनकी रचनाओं में भी इन आपदाओं की झलक देखी जा सकती है। फिर भी, कहा जा सकता है कि ऐसी आपदाओं से सीख लेकर सकारात्मक बदलाव होने चाहिए थे और प्रकृति का पोषण किया जाना चाहिए था, जो कि ठीक से हुआ नहीं।

आपदा के बाद देश और आत्मनिर्भर बनेगा…

कोरोना संकट हमारी आत्मनिर्भरता के लिए भी एक चुनौती बनकर आया लग रहा है… आप आने वाले समय में देश के हालात को किस रूप में देख रहे हैं?
मुझे विश्वास है कि आपदा के बाद हमारा देश और अधिक आत्मनिर्भर होकर उभरेगा। हमारे पहाड़, नदियां, जंगल और पेड़-पौधे फिर उसी स्वरूप को प्राप्त करेंगे जिसे देखकर 19वीं सदी में बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय ने लिखा था, ‘सुजलाम्  सुफलाम् मलयजशीतलाम् शस्य श्यामलाम् मातरम्, वंदे मातरम्’ आज के संदर्भ में हमें ‘मातरम्’ शब्द का प्रयोग ‘भारतमाता’ के साथ-साथ ‘धरतीमाता’ के अर्थ में भी करना चाहिए।

मानव ने प्राकृतिक संपदाओं को नुकसान पहुंचाया

सकारात्मक बदलाव नहीं हो पाया, तब जबकि विज्ञान लगातार प्रगति करता रहा। ऐसा क्यों?
विज्ञान के बल पर प्रकृति को परास्त करने के दंभ से भरे मानव ने अनमोल प्राकृतिक संपदाओं, बायो-डाइवर्सिटी और इकोलॉजी को नुकसान पहुंचाया है, प्रदूषण बढ़ाया है, जीवनशैली से जुड़ी अनेक बीमारियों में स्वयं को उलझाया है। शक्ति व समृद्धि के ऐसे आयामों को बढ़ावा दिया है जिसका नुकसान सभी जीव-जंतुओं, प्राकृतिक संसाधनों और पूरे मानव समाज को भुगतना पड़ा। यह कहा जा सकता है कि वर्तमान आपदा के जरिए प्रकृति एक बार फिर यह संदेश दे रही है कि वस्तुत: मानव जाति की सुरक्षा पृथ्वी और पर्यावरण पर निर्भर करती है। मानव प्रकृति के अधीन है।

जनसंख्या नियंत्रण पर गंभीरता से विचार जरूरी

हमारे देशज विज्ञान ने एक-दूसरे पर निर्भरता, परस्पर पूरकता की बात की थी। दुनिया की बात ही क्या, हम खुद भी इसे भूलते गए।
सभी जीव-जंतुओं और वनस्पतियों के एक-दूसरे पर निर्भर रहने के तथ्य को चार्ल्स डार्विन ने भी रेखांकित किया है। डार्विन ने लिखा है कि मानव जाति की नियति भी अन्य पशु-प्रजातियों की तरह सम्पूर्ण प्रकृति के साथ अटूट रूप से जुड़ी है। लेकिन मनुष्य ने जीव-वनस्पति जगत की अनेक प्रजातियों को समूल नष्ट कर दिया। मानव जाति की आबादी में अभूतपूर्व वृद्धि होने के कारण अन्य सभी प्रजातियों के हिस्से के प्राकृतिक संसाधन उन्हें नहीं मिल पाते हैं। मानव जाति ने पृथ्वी पर अन्य सभी प्रजातियों को विस्थापित जैसा दर्जा दे दिया है। भारत जैसे बड़े और घनी आबादी वाले देशों को विशेष रूप से जनसंख्या नियंत्रण के विषय पर सुविचारित कदम उठाने होंगे। अन्यथा हमारे देश में ऐसी आपदाओं के भीषण परिणाम हो सकते हैं। 

योग, आयुर्वेद प्रभावी

पूरब की पुरानी सभ्यताएं तो प्रकृति की पूजा करते ही विकसित हुईं थीं, इनमें भी तो गड़बड़ी ही होती गई।
सही बात है… भारत से लेकर यूनान तक, प्राचीन परम्पराओं में, प्रकृति के प्रति विनम्रता व्यक्त करने की संस्कृति थी। वेदों में, प्रकृति के प्रति सम्मान-सूचक ‘माता भूमि पुत्रोऽहं पृथिव्या’ जैसे अनेक उदाहरण मिलते हैं। प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण-संवर्धन हमारी संस्कृति का हिस्सा रहा है। इस महामारी का सामना करने में हमारे प्राचीन आयुर्वेद तथा योग भी प्रभावी सिद्ध हो रहे हैं। हमारी परंपरा में निहित वैज्ञानिकता को समझने और अपनाने का अवसर हम सबको, विशेषकर नई पीढ़ी को, इस महामारी के कारण मिला है। जिस तरह योग को वैश्विक स्वीकृति मिली है उसी तरह हमारे खान-पान, चिकित्सा पद्धति और जीवनशैली को भी विश्व समुदाय अपनाएगा और लाभान्वित होगा। 
हाथ मिलाने की जगह ‘नमस्कार’ को अपनाया जाना इस बदलाव का सरल किन्तु महत्वपूर्ण उदाहरण है। हमारे देश में सबसे पहले केरल में यह महामारी देखी गई। रोकथाम में भी केरल का प्रदर्शन अच्छा रहा है। वहां आयुर्वेद आधारित उपचार किए गए।

गांव से पलायन रोकना होगा

भारत जैसे विशाल और सवा अरब से भी ज्यादा आबादी वाले देश के लिए कोरोना से निपटने में जैसी दिक्कतें आ रही हैं, उसमें हमारी जनसंख्या को आप कितना महत्व देते हैं?
आबादी की दृष्टि से भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा देश तो है ही, हमारा जनसंख्या-घनत्व भी बहुत अधिक है। हमारे देश में प्रति-वर्ग किलोमीटर औसत आबादी चीन की लगभग ढाई गुना और अमेरिका की सात गुना है। इसके बावजूद भारतवासियों ने असाधारण संयम, सतर्कता और एकजुटता का परिचय दिया है। इतने बड़े देश में कुछ अपवाद हो सकते हैं। लेकिन वह बहुत कम हैं। यहां फिर से कहना चाहूंगा कि गांव से पलायन को कम करने वाली अर्थव्यवस्था विकसित करने पर हमें अब पहले से अधिक जोर देना होगा।

नानाजी का प्रयोग आगे बढ़े

प्रवासी मजदूरों के अपने गांवों लौटने की अकुलाहट हमारी औद्योगिक प्राथमिकताओं पर भी टिप्पणी नहीं है क्या?
आज भी शहरों के मुकाबले गांव कम प्रदूषित हैं। जनसंख्या घनत्व भी कम है। अब तक उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार, कोरोना का प्रकोप भी शहरों की तुलना में ग्रामीण अंचलों में कम है। विकास की नई इबारत तय करते समय इस तथ्य पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। प्रवासी मजदूरों के बड़ी संख्या में अपने गांव लौटने की आतुरता से पैदा हुई परिस्थितियां भी यही संकेत दे रही हैं कि ग्रामीण अंचलों में स्थानीय विकास और आत्मनिर्भरता का ऐसा स्तर हासिल करना चाहिए जिससे शहरों में जाने का आकर्षण व अनिवार्यता कम हो सके। मैंने शुरू में ही नानाजी देशमुख के चित्रकूट प्रयोग की बात की थी। मैंने वहां जाकर स्वास्थ्य-शिक्षा-उद्योग और गो-संवर्धन के जो काम देखे थे, गांव-गांव जाकर रहने वाले शिक्षित दंपतियों की लगन के परिणाम जाने थे, उनसे यह विश्वास फिर से मजबूत हुआ था कि गांधीजी की सोच पर आधारित राह ही सही है।

संकट की घड़ी में नेतृत्व, प्रशासन व देशवासियों ने गजब का धैर्य दिखाया

किसी भी आपदा में समाज की अंतर्निहित शक्ति की भी परीक्षा होती है। इस कसौटी पर आप भारतीय समाज और सरकार के प्रयासों और योगदान को किस तरह आंकते हैं?
इस आपदा से निपटने में मैं अपने देशवासियों की जितनी भी तारीफ करूं, वह कम है। कठिनाइयों के बावजूद, भारतीय समाज के हर वर्ग ने सरकार के निर्देशों का उत्साह के साथ पालन किया है। डॉक्टरों, नर्सों, स्वास्थ्य-कर्मियों, पुलिस व सुरक्षा-कर्मियों तथा अन्य अनेक क्षेत्रों के लोग अपने जीवन को जोखिम में डालकर समाज की निरंतर सेवा कर रहे हैं।गंभीर संकट की इस घड़ी में हमारे नेतृत्व, प्रशासन व देशवासियों ने जिस आत्मविश्वास और परिपक्वता का परिचय दिया है, उसकी पूरी दुनिया में सराहना हो रही है। कई जगह ग्रामवासियों ने पहल कर अपने गांव में लॉकडाउन को प्रभावी बनाया। मैं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सराहना करता हूं कि उन्होंने उचित समय पर, इस महामारी की रोकथाम के लिए प्रभावी कदम उठाए हैं तथा इस वैश्विक महामारी का सामना करने में देश की अग्रणी भूमिका सुनिश्चित की है। ‘वसुधैव कुटुंबकमं’ तथा ‘जियो और जीने दो’ की भावना को सार्थक करते हुए भारत ने अब तक सौ से अधिक देशों को दवाइयां उपलब्ध कराई हैं। देशवासियों ने, प्रधानमंत्री के नेतृत्व में जिस आस्था का परिचय दिया है वह अपने आप में एक मिसाल है।

संक्रमण रोकने में ‘इंडिया मॉडल’ कारगर…जीवन रक्षा को प्राथमिकता

वायरस का जब तक टीका ईजाद नहीं हो जाता, ये संकट बना रहेगा। लंबे समय तक लॉकडाउन भी नहीं लगाया जा सकता। ऐसे में देश को किस तरह कोरोना का मुकाबला करते हुए सामान्य जिंदगी की ओर लौटना चाहिए?

जीवन और स्वास्थ्य की रक्षा को सर्वोपरि रखते हुए विभिन्न गतिविधियों को फिर से शुरू करने की छूट दी जा रही है। प्रधानमंत्री तथा मुख्यमंत्रियों के प्रभावी नेतृत्व एवं प्रयासों के बल पर भारत ने जिस तरह अब तक इस वैश्विक महामारी का सामना किया है उसे ‘इंडिया मॉडल’ के रूप में देखा जा सकता है। पहले चरण में जीवन रक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गई। महामारी की रोकथाम व इलाज के लिए बड़े पैमाने पर तैयारी कर ली गई। अभूतपूर्व जागरूकता अभियान के बल पर, जिसका नेतृत्व स्वयं प्रधानमंत्री ने किया, सोशल डिस्टेसिंग को जीवन का हिस्सा बनाया गया। उसके बाद के चरण में सुनियोजित तरीके से आर्थिक गतिविधियों को फिर से शुरू किया जा रहा है। अब तक के आंकड़े बताते हैं कि ‘इंडिया मॉडल’ कारगर रहा है।

सोशल डिस्टेंसिंग जीवन का हिस्सा

कोरोना ने भारत के प्रथम नागरिक के जीवन को किस तरह बदला है?
जहां तक रोजमर्रा के जीवन का सवाल है, सभी नागरिकों की तरह सोशल डिस्टेन्सिंग बनाए रखने की अनिवार्यता का पालन करने से मेरी जीवनशैली में भी कुछ बदलाव आए हैं। मैंने आगंतुकों से मिलने से परहेज रखा है। मैं और मेरे परिवार के सभी सदस्य घर में बनाया हुआ मास्क पहनते हैं। मेरी दिनचर्या में योग-प्राणायाम-ध्यान तथा व्यायाम हमेशा से शामिल रहे हैं। वह क्रम बिना बदलाव जारी ही है। मेरी धर्मपत्नी देश की बहन-बेटियों को प्रोत्साहित करने और कोरोना के विरुद्ध लड़ाई में उनका मनोबल बढ़ाने के उद्देश्य से मास्क बनाने में भी अपना समय व्यतीत करती हैं। उनके समेत परिवार के सभी सदस्य लगभग 100 लोगों के लिए भोजन बनाने में भी व्यस्त रहते हैं। यह भोजन प्रतिदिन गुरुद्वारा बंगला साहब भेजा जाता है जहां से उसे जरूरतमंदों में वितरित किया जाता है।

चित्रकूट से लेकर गांधी तक, स्पैनिश फ्लू से लेकर वैश्विक आपदा कोरोना तक, प्रेमचंद और निराला से लेकर डार्विन के कुछ अनजाने पक्ष तक और आज के केरल की अब भी कायम स्वास्थ्य पोषक परंपराओं से लेकर एकांगी भौतिक विकास के बरक्स प्रकृति पोषक समावेशी विकास तक-राष्ट्रपति रामनाथ कोविन्द ने अपने कार्यकाल के सबसे पहले और विस्तृत इंटरव्यू में कोरोना से उपजे संकट और उसके निहितार्थ पर खुलकर बात की। इस वैश्विक महामारी के सबक याद दिलाते हुए भारतीय मनीषा और भारतीय आत्मा के मूल तत्वों की उपयोगिता को सहजता से सामने रखा। अमर उजाला के लिए संजय देव से हुई खुली बातचीत के प्रमुख अंश…

बहुत बड़ी चुनौती है यह आपदा… 




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