China Does Not Want War With India But To Distract The World From Beijing – चीन का इरादा भारत से टकराने का नहीं, दुनिया का बीजिंग से ध्यान भटकाने का है




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भारत और चीन के रिश्तों की केमिस्ट्री काफी बदली है। अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य भी बदले हैं। प्राग्मैटिज्म बढ़ा है। भारत-चीन मामलों के विशेषज्ञ और कूटनीतिज्ञ अभी दोनों देशों में टकराव बढ़ने का कोई कारण नहीं देख पा रहे हैं। उनकी नजर में एक नूरा कुश्ती चल रही है और जून के पहले सप्ताह तक इसका पटाक्षेप हो जाएगा। 

चीन मामलों पर गहरी नजर रखने वाले स्वर्ण सिंह का भी यही आकलन है। विदेश मंत्रालय के उच्च पदस्थ सूत्रों को भी उम्मीद है कि जल्द सब सामान्य हो जाएगा। सेना के एक पूर्व कोर कमांडर का भी कहना है कि चीन की सेना के व्यवहार से किसी युद्ध या तनाव बढ़ जाने की आहट दिखाई नहीं देती।

स्वर्ण सिंह का यही मानना है। स्वर्ण सिंह कहते हैं चीन की सेना पत्थर और डंडे से हमला कर रही है। क्या उसके पास हथियार नहीं हैं? साफ है कि वह युद्ध नहीं चाहते। यहां भीतर कुछ और पक रहा है। ऐसा लगता है कि चीन के रणनीतिकार भारत पर केवल अपना दबदबा दिखाना चाहते हैं। वह चाहते हैं कि भारत यह मान ले कि चीन की सेना उसके क्षेत्रों में घुसपैठ करती रहेगी। इसके पीछे उनके दो मकसद हो सकते हैं। 

पहला यह कि चीन भारत से शक्ति, समृद्धि और प्रभाव में आगे है और भारत उसकी इस तरह की हरकतों को सहता रहे। दूसरा, वह बीजिंग में चल रहे दो महत्वपूर्ण अधिवेशन से दुनिया का ध्यान हटाकर सीमा क्षेत्र में लाना चाह रहा है, क्योंकि इन दोनों अधिवेशन में राष्ट्रपति शी जिनपिंग का प्रभाव ऊंचा उठता दिखाई देगा। यह चीन के आंतरिक मामलों के कारण हो सकता है।

स्वर्ण सिंह कहते हैं कि इसलिए पिछले कुछ साल से चीन ने घुसपैठ की कोशिश बढ़ा दी है। पिछले साल उनकी सेनाओं ने कोई 600 बार ऐसा प्रयास किया था। दूसरा दोकलाम में 70 दिन की दोनों सेनाओं की जद्दोजहद बताती है कि वे अब बड़ी गाड़ियां, ट्रक, टैंक जैसे वाहन लेकर भी आते हैं। आक्रमकता या हमले जैसी स्थिति को पैदा कर रहे हैं, लेकिन युद्ध या सैन्य झड़प नहीं होती। स्वर्ण सिंह के मुताबिक इस समय भी चीन की सेना टैक्टिल मूव करती दिखाई दे रही है।

1962 में भारत-चीन की सेना के बीच युद्ध के बाद से अब तक भारतीय सामरिक विशेषज्ञ चीन से लगती वास्तविक सीमा को सबसे कम तनाव वाली मानते हैं। स्वर्ण सिंह 1988 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की चीन यात्रा को काफी महत्वपूर्ण मानते हैं। उनका कहना है कि तब भारत और चीन की जीडीपी में कोई खास अंतर नहीं था। 

इनफैंट्री के पूर्व डीजी राजिंदर सिंह या बातचीत के दौरान पूर्व एनएसए स्व. बृजेश मिश्र भी कहते थे कि चीन के सैनिक वास्तविक नियंत्रण रेखा(एलसीए) निर्धारित न होने के कारण कभी भारत की तरफ चले आते थे, कभी भारत के सैनिक उधर चले जाते थे। एक दूसरे द्वारा टोके जाने पर दोनों देश के सैनिक वापस अपनी सीमा में चले जाते थे। 

पूर्व रक्षा मंत्री एके एंटनी भी पूरे कार्यकाल तक इसी तरह का बयान देते रहे। सेना की पूर्वोत्तर कमान के पूर्व कोर कमांडर भी कहते हैं। लेकिन दोकलाम में 73 दिन तक भारत और चीन की सेना के आमने सामने की स्थिति ने सब बदल दिया है। घुसपैठ में शक्ति प्रदर्शन का आना नई बात हो गई है।

स्वर्ण सिंह कहते हैं कि पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने 1988 में जब चीन की यात्रा की थी, तब चीन की जीडीपी और भारत की जीडीपी में कोई खास अंतर नहीं था। चीन की जीडीपी महज 18 बिलियन डॉलर अधिक थी। आज चीन की जीडीपी 13.7 बिलियन डालर और भारत की 2.7 बिलियन डालर के करीब है। पांच गुना का अंतर है। 

चीनी मामलों के विशेषज्ञ कहते हैं कि चीन के राष्ट्रपति हू जिंताओ का दौर याद कीजिए। वह सोचते थे कि चीन का समय आएगा, विश्व का नेता बनेगा। यह शी जिनपिंग का दौर है, जो मानते हैं कि चीन का वह समय आ चुका है। इसलिए चीन न केवल विश्व व्यापार के मामले में अमेरिका से टकरा रहा है, बल्कि दक्षिण चीन सागर में अपना प्रभुत्व दिखा रहा है। 

इसी तरह से दक्षिण एशिया में अपनी दखल बढ़ा रहा है और भारत के लिए परेशानी खड़ी कर देता है। चीन की तुलना में 2005-2012,13 तक भारत आर्थिक मोर्चे पर काफी तेजी से बढ़ रहा था। आज भले ही भारत आर्थिक मोर्चे पर उस गति से नहीं है, लेकिन डेमोग्रैफिक और डेमोक्रेटिक देश के रूप में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अक्सर इस टर्म का उपयोग करते हैं। 

स्वर्ण सिंह कहते हैं कि इसके  कारण अमेरिका जैसे देश भारत के मजबूत सामरिक, रणनीतिक साझीदार बन रहे हैं। वह कहते हैं कि अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की विश्व के नेताओं से कम पटती है। इसके सामानांतर वह प्रधानमंत्री मोदी को दोस्त बताते हैं। गुजरात के मोटेरा स्टेडियम में जनसमुदाय को संबोधित करते हैं। हाउडी मोदी कार्यक्रम के लिए अमेरिका में समय देते हैं। स्वर्ण सिंह का कहना है कि चीन की इस डेवलपमेंट पर लगातार नजर रहती है।

2005 से चीन के साथ द्विपक्षीय व्यापार तेजी से बढ़ा। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने भी प्राग्मैटिक रुख अख्तियार किया। अब भारत और चीन के रिश्ते में तिब्बत का मुद्दा या दलाई लामा नाराजगी का कारण नहीं हैं। दोकलाम के बाद अस्ताना में जब राष्ट्रपति शी जिनपिंग और प्रधानमंत्री मोदी मिले तो दोनों नेताओं ने आपसी मतभेद को विवाद का रूप न देने का वक्तव्य दिया। 

वुहान में अनौपचारिक मीटिंग जैसी सहमति बनी। महाबलीपुरम में भी यह सिलसिला चला। वुहान में तय हुआ कि सीमा पर शांति स्थापित करने के लिए सीमा प्रबंधन मैकेनिज्म मजबूत करेंगे। दोनों शिखर नेता खुद इस पर ध्यान देंगे। स्वर्ण सिंह का कहना है कि दो देश हैं तो इनके बीच में छोटे-मोटे मुद्दे चलते रहेंगे, लेकिन भारत ने भी परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (एनएसजी) समेत अन्य जरूरतों को समझकर रणनीतियों को अपनाया है।

चीन चारों तरफ से घेरकर भारत को एहसास कराने की रणनीति पर चल रहा है। भारत ने भी कुछ बदलाव किए हैं। वह 2006-07 से चीन से लगती सीमा पर इंफ्रास्ट्रक्चर पर ध्यान दे रहा है। अब 17 हजार फीट की ऊंचाई पर लिपुलेख तक गाड़ी से जाना, नाथु-ला पास तक फर्राटा भरते जाना, ईटानगर और चीन की सीमा तक संपर्क मार्ग बनना, लेह-लद्दाख में चुशुल के बाद दौलत बेग ओल्डी एयरपोर्ट पर सुखोई, सी-130 जे हरक्युलिस विमान उतारना। कई बड़े बदलाव हो गए हैं। 

यह सब भारत की सीमा के भीतर ही हैं, लेकिन चीन को तो अखरेंगे ही। क्योंकि सीमा पर जरूरत पड़ने पर भारतीय फौज भी तेजी से पहुंच सकेगी। इसके अलावा भारत ने कोविड-19 संक्रमण को पर विश्व स्वास्थ्य संगठन को लेकर अमेरिकी रुख का साथ दिया। दक्षिण चीन सागर पर भारत का रुख चीन के खिलाफ रहता है। हांगकांग में निमंत्रण पर भाजपा के दो सांसद हिस्सा लेते हैं। इस तरह से कहीं न कहीं भारत भी चीन को एहसास कराता रहता है।

विशेषज्ञों और कूटनीति के जानकारों का मानना है कि जून के पहले सप्ताह तक भारत-चीन के बीच में चल रही तनाव की स्थिति समाप्त हो जाएगी। बताते हैं बीजिंग में अधिवेशन समाप्त होने के कुछ दिन बाद यह गतिरोध खत्म हो जाएगा। चीन की सेना भी सीमावर्ती क्षेत्र में लोगों का ध्यान आकर्षित करने की नीति से पीछे हट जाएगी। बताते हैं प्रधानमंत्री मोदी राजनीतिक स्तर से सक्रिय हैं। 

माना जा रहा है राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल अपने चीन के समकक्ष के साथ प्रयास कर रहे हैं। कूटनीति की रूपरेखा में विदेश मंत्री एस जयशंकर और विदेश सचिव हर्षवर्धन श्रृंगला लगातार सक्रिय हैं। विदेश मंत्री एस जयशंकर चीन के राजदूत रहे हैं। वह अमेरिका के भी राजदूत रहे हैं और उन्हें सभी बारीकियां पता हैं। 

रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह, सीडीएस जनरल बिपिन रावत और तीनों सेना प्रमुख सैन्य डिप्लोमेसी के लिहाज से लगातार संदेश देते हुए यथास्थिति बनाए रखने के पक्ष में हैं। कुल मिलाकर भारत का मानना है कि उसने किसी भी अंतरराष्ट्रीय परंपरा का उल्लंघन नहीं किया है। चीन के साथ लगती वास्तविक नियंत्रण रेखा का सम्मान करता है। इसलिए भारत दृढ़ता के साथ इस पर कायम है।

सार

  • तेजी से बदल रही है भारत और चीन रिश्तों की केमिस्ट्री
  • कोई बड़ी सेना पत्थर-डंडे से हमला नहीं करती, यह रणनीतिक कदम है
  • बीजिंग में हो रहे दो बड़े अधिवेशन से ध्यान हटाना है मकसद
  • प्रधानमंत्री, एनएसए, विदेश मंत्री, सीडीएस और तीनों सेनाओं के प्रमुखों ने अपने स्तर से बढ़ाया प्रयास
  • न तो भारत पीछे हटेगा और न चीन मोर्चा छोड़ेगा

विस्तार

भारत और चीन के रिश्तों की केमिस्ट्री काफी बदली है। अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य भी बदले हैं। प्राग्मैटिज्म बढ़ा है। भारत-चीन मामलों के विशेषज्ञ और कूटनीतिज्ञ अभी दोनों देशों में टकराव बढ़ने का कोई कारण नहीं देख पा रहे हैं। उनकी नजर में एक नूरा कुश्ती चल रही है और जून के पहले सप्ताह तक इसका पटाक्षेप हो जाएगा। 

चीन मामलों पर गहरी नजर रखने वाले स्वर्ण सिंह का भी यही आकलन है। विदेश मंत्रालय के उच्च पदस्थ सूत्रों को भी उम्मीद है कि जल्द सब सामान्य हो जाएगा। सेना के एक पूर्व कोर कमांडर का भी कहना है कि चीन की सेना के व्यवहार से किसी युद्ध या तनाव बढ़ जाने की आहट दिखाई नहीं देती।


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